हमने कभी फ़ातिहा नहीं पढ़ा ज़िंदगी की हार पर / नीलोत्पल
हमने कभी फ़ातिहा नहीं पढ़ा ज़िंदगी की हार पर
जीवन नहीं रहा उस तरह
जिस तरह एक आवाज़ के साथ
होती थीं कई-कई आवाज़ें
बैलों के खुरों में होती थी गति
खेतों के विस्तार की
वे चाव से हल खींचते
और हम नाप लेते
जीवन के छूटे हुए कोनों में
मिट्टी का साथ
हम सुख-दुख का पीछा नहीं करते थे
धूल हमें प्यारी थी
पत्थरों पर कई गीत लिखे
जो मिटाये नहीं जा सके
न्याय के लिए अदालतें नहीं
गवाही भीतर होती थी
जिसे सच मान लिया जाता
बिना शक़ और सवाल के
हम अक्सर अपनी ग़लतियों पर
क्षमा मांगते थे
होता यूं कि हम छोटा करते ख़ुद को
और आज़ादी और अपनेपन को
रखते हमेशा उठाकर
कोरे शब्द नहीं रहे कभी हमारे पास
उनमें सच्चाइयाँ थीं हमारे ख़ून की
हमने कभी फ़ातिहा नहीं पढ़ा
ज़िंदगी की हार पर
जंगल से जब भी लकड़ियां लीं
भींगे हुए थे हम
हम भरे थे प्यार और करुणा से
जब भी हमने गले लगाया एक-दूसरे को
हम काम से लौटते
और रिश्तों के ताने-बाने में उलझकर
एक सुआ इस तरह टाँकते कि
ज़रूरत ही नहीं पड़ती गठान की
जीवन नहीं उस तरह
जिस तरह सच आज खड़ा है बाज़ार में
सौदे और बोलियों के बीच
देख रहा है वह चुके हुए इंसान की तरह
अपने उदास और दुखी मन की
स्वीकारोक्ति पर
उठते-गिरते सवालों की नूरा-कुश्ती
तमाशों का दौर जारी है...