भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमने जो कुछ रचा / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमने जो कुछ रचा
उम्र भर
वह सब झूठ हुआ

पगडंडी से सडक-दर-सडक का
है रहा सफ़र
निकले थे कुछ दिन के ख़ातिर
लौट न पाये घर

कहीं रह गयी
पीछे
जो पुरखों की रही दुआ

लेकर चले साथ पूँजी थे
हिरदय के आखर
अंदर से हम हुए खोखले
हाट-हाट बिक कर

लगे दाँव पर -
हारे जीवन
चलता रहा जुआ

खुला-खुला आकाश सिकुड़कर
बचा हथेली-भर
दुनिया-भर के स्वाँग रचाये
और हुए पत्थर

कुछ दिन बीते
हुआ अपाहिज
भीतर बसा सुआ