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हमने जो कुछ रचा / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
हमने जो कुछ रचा
उम्र भर
वह सब झूठ हुआ
पगडंडी से सडक-दर-सडक का
है रहा सफ़र
निकले थे कुछ दिन के ख़ातिर
लौट न पाये घर
कहीं रह गयी
पीछे
जो पुरखों की रही दुआ
लेकर चले साथ पूँजी थे
हिरदय के आखर
अंदर से हम हुए खोखले
हाट-हाट बिक कर
लगे दाँव पर -
हारे जीवन
चलता रहा जुआ
खुला-खुला आकाश सिकुड़कर
बचा हथेली-भर
दुनिया-भर के स्वाँग रचाये
और हुए पत्थर
कुछ दिन बीते
हुआ अपाहिज
भीतर बसा सुआ