Last modified on 19 फ़रवरी 2010, at 20:05

हमने तमाम उम्र महज़ काम ये किया / विनोद तिवारी

हमने तमाम उम्र महज़ काम यह किया
दुख-दर्द का पहाड़ था सर पर उठा लिया

शायर पे वो सुरूर था तारी न पूछिये
लोगों से माँग-माँग कर सारा ज़हर पिया

चलते रहो बस हौसलों का हाथ थाम कर
इस तीरगी में ढूँढ निकालेंगे इक दिया

जो दूसरों की आग सदा तापते रहे
इक दिन जला के बैठ गए अपनी उँगलियाँ

हम भी शरीके-जश्न थे ये और बात है
तिश्ना-लबों की भीड़ में हमको मिला ठिया

नाकामियों पे अपनी मगर फ़ख़्र है हमें
हमको सदा अज़ीज़ रहीं अपनी ग़लतियाँ