हमने सब कुछ ही मुहब्बत में तिरे नाम किया / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’
हम ने सब कुछ ही मुहब्बत में तिरे नाम किया
और जो बच गया वो वक़्फ़-ए-मय-ओ-जाम किया
खु़द को जैसे भी हुआ खूगर-ए-आलाम किया
फ़ैसला इस तरह तेरा दिल-ए-नाकाम! किया
शाम को सुब्ह किया, सुब्ह को फिर शाम किया
हम ने मर मर के ग़म-ए-ज़ीस्त का इकराम किया
कब रहा एक जगह गर्दिश-ए-दौरां को क़ियाम
साक़ी-ए-वक़्त को किसने है भला राम किया?
एक लम्हा भी नहीं सज्दा-ए-ग़म से खाली
कैसे काफ़िर ने हमें बन्दा-ए-इस्लाम किया
आप का पास-ए-मुहब्बत कोई देखे तो सही
हम को रुस्वा किया और वो भी सर-ए-आम किया
ऐसे बे-फ़ैज़ थे कुछ हाथ न आया अपने
शिकवा-ए-दर्द किया, शिकवा-ए-अय्याम किया
राह गुम-कर्दा हुए शहर-ए-यक़ीं में जिस दिन
दिल-ए-दीवाना को सर-गश्ता-ए-औहाम किया
बज़्म-ए-अहबाब में "सरवर" ये ग़ज़ल लाए हो?
और इस पर यह समझते हो बड़ा काम किया!