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हमरा के कोई का कही तनिको ना गम रहल / सूर्यदेव पाठक 'पराग'

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हमरा के कोई का कही तनिको ना गम रहल,
जेकरा जिया में जे रहल अपने मने कहल।
अनुकूल राह देखि के बढ़लीं बिना हिचक,
कबहीं बइठि के ना बनवलीं हवा महल।
जवने मिलल से पाइ के जियरा जुड़ा गइल,
दोसरा के देख के ना डहुरलीं चहल-पहल।
दुनियाँ प्रपंच बुद्धि से आगे निकल गइल,
इंसानियत के हाथ पीड़ा पड़ गइल सहल।
एह जुग में मेहनते के कीमत गिरत गइल,
एही से कुरसीधारी लोगन के बा लहल।
खूनी हथेली देख के डोलत करेज बा,
बकिर नजर पड़ल कहाँ आँसू जवन, बहल।
का बा ‘पराग’ के कि कुछ केहू के दे सकस,
महलन का बीच में बा पलानी गिरल-ढहल।