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हमसफ़र और पथ के पत्थर एक जैसे हो गए / विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ'
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हमसफ़र और पथ के पत्थर एक जैसे हो गए ,
सारे रहज़न और रहबर , एक जैसे हो गए ।
उसके आँचल की हवाएँ छू गईं जिस पल मुझे ,
प्यास और पानी के मंज़र , एक जैसे हो गए ।
क़ौम की आवाज़ थे जो रहनुमा कल तक यहाँ ,
आज वो सब होंठ सिलकर , एक जैसे हो गए ।
घेर कर ये जिंदगी लाई मुझे उस मोड़ पर ,
जुस्तजू के सारे पैकर , एक जैसे हो गए ।
दीप को घेरे हुए थे , जितने दीवाने ‘शलभ’,
आग में सब उसकी जलकर , एक जैसे हो गए ।