हमहूँ छी एही समाजमे / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
हमहूँ छी एही समाजमे,
जकरा खातिर गान्धी बाबा
तिल-तिल जीवन अर्पण कयलनि,
जकरा खातिर सहस-सहस
बलिदानी रक्तेँ तर्पण कयलनि,
जकरा खातिर कते माय-बहिनिक
सिउँथिक सिन्दूर मेटायल,
जकरा खातिर कते मनीषी
लाठी खा-खा भूमि लेटायल,
जकरा खातिर श्वास-श्वाससँ
एक प्रबल फूत्कार उठल छल,
जकरा खातिर प्राण-प्राणसँ
प्रलयंकर हूंकार उठल छल,
ताहि दिनुक देखल सपना की
एखनहुँ धरि साकार भेल अछि,
युग-युगसँ कुण्ठित समाजकेर
एखनहुँ धरि उद्धार भेल अछि?
अपनहुँ छी एही समाजमे
जन्म-सिद्ध अधिकार सभक
थिक ई स्वतन्त्रता,
देश समाजक अहंकार
नहि थिक स्वतन्त्रता,
करबा लय उपभोग तकर
हम लै’ छी पक्कड़,
एतबे टा बुझबामे
सब छी लाल बुझक्कड़,
औंड़ि मारि रहलहुँ सुख-सुविधा
पयबा लय हम,
किन्तु न छी तैयार
तत्त्व दिस जयवा लय हम
ई समाज स्वाधीनताक
की मोल बुझै’ए,
स्वार्थ सिद्धि लग हमरो
ने भरि टोल सुझै’ए,
नहि आवश्यक वस्तु
तुबै’ छै, आसमानसँ,
नहि उपभोग्य पदार्थ
चुबै’ छै’ संविधानसँ,
एहि हेतु देशक श्रम-धन
अनिवार्य होइत छै’
एहि हेतु प्रत्येक डेग
सुविचार्य होइत छै’
हू हू कयलासँ नहि बढ़इत
छै’ कोनो देशक उत्पादन
गाल बजौने रचना-मूलक
काजक नहि होइ छै’ सम्पादन
आहो छेथि एही समाजमे,
भोगवाद कोनो समाजकेँ चिबाजाइ छै’
अपन कुकर्मे अपने गर्दनि दबा जाइ’ छै’
भोगवाद सौंसे समाजमे
वस्त्र फोलिकऽ नाचि रहल अछि,
भोगवाद अन्तरक आगिकेँ
और फूकिकय आँचि रहल अछि,
की भविष्य भारतक भालपर
अंकित अक्षर बाँचि रहल अछि,
आइ विवेक हमर पौरुषकेँ
चढ़ा चाँछपर जाँचि रहल अछि
ओहो छेथि एही समाजमे,
अपनहुँ छी एही समाजमे।
सब क्यो छी एही समाजमे
आइ आत्म-विश्वास कदाचितटूटिजाय तँ,
आकाशक लोभेँ ई धरती छूटि जाय तँ,
थिक बुझबाक अदिन्ता
नचइत अछि कपार पर,
पाथर अछि पड़ि गेल
सेहन्ताकेर पथार पर,
काक डकै’ अछि, पहिने
पढू एकर ई भाषा,
आइ करक अछि निर्धारित
नीतिक परिभाषा,
ई समाज दिग्भ्रान्त
परम उत्फाल बनल अछि,
देशक नौकामे ई
उनटे पाल तनल अछि।
रचना काल 1974 ई.