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हमारा अवकाश नहि / प्रवीण काश्‍यप

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आँखिक कोर सँ
फराके रहैत अछि,
हमर नोरक बुन्न
अवकाश कतऽ!
तोरा संगक अतीतक स्मृतिमे
होइत रहैत अछि मिज्झर।
अवकाश कतऽ!

फुटलका चूड़ीक खेलमे
एक-एक टूट घींचबा काल
कतेक एकाग्र भऽ जाइत छल मन!
मारि-दंगा-कट्टिस करबा उपरान्त
कनिए काल मे एक होएबा लेल
मिल जाए लेल; कतेक थिर,
पवित्र छल मन!
मुदा आइ ओ समग्र पल बिछबालेल
व्यग्र मन कें फन्द कतेक?
अवकाश कतऽ!

‘चिदणु’ जकाँ संगे रहैत छी सभ,
अपन-अपन अस्तित्वक
थोथ प्रदर्शन में व्यस्त;
आइ, महत्वाकांक्षाक भाव सँ मतल
फराक-फराक विज्ञान में
वैषम्य कतेक?
अवकाश कतऽ!

शून्य मस्तिष्कक मनुष्यक आँखि सँ,
तकैत अतीतक कोनो चेन्ह, वर्तमान में!
राग-द्वेष सँ भरल हृदय कें
नुकौने रहैत छी, ठोरक मुस्की सँ!
अवकाश कतऽ!

संगी-साथी बिनु अहुरिया कटैत
हिमालयी मन सँ दबल, क्लान्त
दौगैत भागैत शरीर कें
एकान्त कतऽ
अवकाश कतऽ!