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हमारी उम्र का कपास धीरे धीरे लोहे में बदल रहा है (कविता) / हेमन्त देवलेकर

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हमारी गेंदें अब लुढ़कती नहीं
चौकोर हो गई हैं,
खिलौने हमारे हाथों में
आने से कतराते हैं,
धींगा-मस्ती, हो-हुल्लड़ याद नहीं
हमने कभी किया हो

पैदाइश से ही इतने समझदार थे हम
कि किसी चीज़ की जिद में
कभी मचले या रोए नहीं
स्कूल को जाने वाला रास्ता
नहीं देखा हमारे पैरों ने
हमारी उम्र का कपास धीरे-धीरे
लोहे में बदल रहा है

दूध से भरे हमारे कोमल शरीर
पसीने से लथपथ रहते हैं अक्सर
और हमारे माँ-बाप को फख्र है हम पर
कि हम गिरस्थी का बोझ उठाने के काबिल हो गए हैं

हम पटाखों में भरते हैं बारूद
होटलों में कप बसियाँ धोते हैं,
रेल के डिब्बे में अपनी ही क़मीज़ से
लगाते हैं पोंछा
गंदगी के ढेर पर बीनते हैं
प्लास्टिक और काँच
ग्रीस की तरह इस्तेमाल होता है
हमारा दूधिया पसीना

कारख़ानों के बहरा कर देने वाले शोर
और दमघोंटू धुएँ के बीच
हम तरसते हैं अक्सर
बाहर आसमान में कटकर जाती
पतंगों को लूटने

लेकिन हमने कभी सवाल नहीं उठाए
कि खेलने-कूदने की आज़ादी क्यों नहीं हमें?
क्यों पढ़ने-लिखने का हक़ नहीं हमें भी?
ये सवाल न उनसे पूछे
जिन्होंने काम पर भेजा हमें
और न पूछे उनसे जिन्होंने
काम पर रखा हमें

दुत्कार और लताड़ से भरे शब्द ही
हमारे नाम रह गए हैं

हमारे बारे में ये दुआएँ की जाती हैं
कि हम कभी बीमार न पड़ें
शोरगुल और धमा-चैकड़ी मचाते बेफिक्र बच्चे
हमें दिखाई न दे जाएँ
और स्कूल जाते बच्चों का
हमसे कभी सामना न हो

दूध से भरे हमारे कोमल शरीर
पसीने से लथपथ रहते हैं अक्सर
हमारी उम्र का कपास
धीरे धीरे लोहे में बदल रहा है.