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हमारी उम्र की शाम सही 1 / महेश सन्तोषी

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हमारी उम्र की शाम सही,
अब हमारा तुम्हें यह आख़िरी सलाम सही,
हमारे अक्षरों का सफर तो अब पूरा हुआ,
ये कुछ आखिरी अक्षर भी तुम्हारे नाम सही,

एक ही शहर था हमारा, एक ही मोहल्ला था,
बस गलियाँ अलग-अलग थीं,
बहुत फासले पर नहीं थे हमारे घर
पर पड़ोसियों जैसी नजदीकियाँ भी नहीं थीं,
एक दिन तुम्हें देखकर हमें लगा था
जैसे जिन्दगी की कविता मिल गई हो,
मन हुआ था हमारे हाथ में जीवन रेखा के पास
तुम्हारे नाम की भी एक रेखा कहीं हो!
जब पहली बार पढ़े थे हमने
तुम्हारी आँखों में प्यार के ढाई आखर,
हर कागज पर प्यार ही प्यार लिखा था
हमने उस दिन स्कूल से घर आकर,
फिर हर धरातल पर हम
बराबर लिखते रहे प्यार की इबारतें,
तुम्हारी हथेलियों की घनी धूप
इन हथेलियों पर बनी रही,
उम्र की दोपहरियाँ आते-आते
देह की नई सच्चाइयाँ भी उभरते सपनों सी लगीं
और हम कई सपनों को चाँदनी में उड़ाते रहे!