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हमारी गर्दिशों के दौर दोरे कम नहीं होते / बलबीर सिंह 'रंग'

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हमारी गर्दिशों के दौर दोरे कम नहीं होते,
कोई अपना नहीं होता किसी के हम नहीं होते।

उन्हें इंसान कहलाने का कोई हक़ नहीं होता,
जो इंसान हो के इन्सा के शरीके़ ग़म नहीं होते।

फरिश्तों और शैतानों की क्या पहचान हो पाती,
अगर दुनिया में पैदा हज़रते आदम नहीं होते।

बनाना चाहते हैं जो निज़ामे ज़िन्दगानी को,
यह सच है उनके हाथों में कोई परचम नहीं होते।

किसी के इश्क़ में अये ‘रंग’ क्यों नाहक परेशां हो,
जनावे मन, ये पत्थर-दिल सनम हैं नम नहीं होते।