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हमारी माँएँ पितृसत्ता के घोर षड्यन्त्र में फँसी हुई हैं / नेहा नरुका

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मेरी माँ महान है तभी तो आज तक
मेरे लम्बे-चौड़े-मोटे घर का अकेले ही खाना पका रही है
अकेले ही झाड़ू लगा रही है
अकेले ही बरतन साफ़ कर रही है
अकेले ही पीट-पीटकर कपड़े धो रही है
अचार से लेकर पापड़ तक सबकुछ घोषित प्रेम की तरह अकेले ही बना रही है।

पर्दे सिल रही है
पलँगपोश काढ़ रही है
उसने तकिए में रुई की जगह भर रखा है अपने बच्चों का बचपन
जिन्हें वह अक्सर चूम-चूम कर रोती है
उसके खुरदरे, रूखे और जले-फटे हाथ एलबम में लगी उसकी पुरानी तस्वीर को सन्देह की दृष्टि से स्पर्श करते हैं।

बस-टेम्पों में धक्के खा रही है
नौकरी कर रही है
सारा पैसा बच्चों के भविष्य के लिए बचा रही है
जहाँ दस रुपए खर्च करके थोड़ी राहत मिले
वहाँ भी मेरी माँ पसीना बहा लेना उचित समझती है

पिता के माँ-बाप की सेवा कर रही है
अपने माँ-बाप को 'फ़ोन से बात करके' तसल्ली दे रही है
अपने हिस्से की सम्पत्ति ख़ुशी से अपने भाई को दे चुकी है
अपनी बहनों और ननदों को हर साल उपहार भेजती है
कभी-कभी अपनी भाभियों को भी दे देती है चुपचाप पैसे उधार
मेरी माँ बहुत महान है इतनी कि मुझे शक होने लगा है उसके इनसान होने पर
उसे देखकर घृणा उपजती है 'देवी-माँ' के इस पूरे प्रपँच से

कोई बताए मेरी माँ को
मुझे महान माँ नहीं इनसान माँ चाहिए
मेरी माँ कहती है
ये सब कहने की बातें हैं
जिस दिन ऐसा होगा
तुम्हारे घर की दीवारें हिल जाएँगी
और बिला जाएँगे उसमें तुम्हारे समस्त सिद्धान्त
तुम्हारा घर, घर ही नहीं रहेगा तब
जहाँ तुम हर त्यौहार आ जाती हो खुशियाँ मनाने

मेरी प्यारी बेटी पसन्द तो तुम्हें भी आख़िर मेरे हाथ का कटहल का अचार, भरवा बैंगन और आलू का पराठा ही हैं न
तुम नहीँ जानती कि तकिए में तुम्हारे बचपन के साथ मेरे ख़्वाब भी बन्द हैं

किसी की आज़ादी को चाहना अलग बात है
और उसे वह आज़ादी देना अलग बात
प्यारी बेटी, क्या तुम सचमुच मुझे इस महिमामण्डन से मुक्त करना चाहती हो ?