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हमारे मनचले / हरिऔध
Kavita Kosh से
सब तरह की सूझ चूल्हे में पड़े।
जाँय जल उन की कमाई के टके।
जब भरम की दूह ली पोटी गई।
लाज चोटी की नहीं जब रख सके।
लुट गई मरजाद पत पानी गया।
पीढ़ियों की पालिसी चौपट गई।
चोट खा वह ठाट चकनाचूर हो।
चाट से जिस की कि चोटी कट गई।
लग गई यूरोपियन रंगत भली।
क्यों बनें हिन्दी गधे भूँका करें।
साहबीयत में रहेंगे मस्त हम।
थूकते हैं लोग तो थूका करें।