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हमें ज़माने की गर्दिश ने क्या मिटाना था / सुरेश चन्द्र शौक़
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हमें ज़माने की गर्दिश ने क्या मिटाना था
हमारे जाम की गर्दिश में ख़ुद ज़माना था
हुआ कुछ ऐसा कि साज़ों के तार टूट गए
हमें भी वर्ना महब्ब्त का गीत गाना था
तिरि बला से अगर बन गई मिरी जाँ पर
मगर तुझे तो मेरा ज़र्फ़ आज़माना था
तुम्हारी आँख है क्यों अश्कबार मेरे लिए
तुम्हें तो मेरी तबाही पे मुस्कुराना था
अजीब बात है वो भी फ़रेब देते रहे
सुलूक जिनका बज़ाहिर तो दोस्ताना था
हमारी उनसे महब्बत की दास्तां ऐ ‘शौक़’
बस इतना कहिये अधूरा—सा इक फ़साना था
गर्दिश=कालचक्र; ज़र्फ़=हौसला