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हमेशा है वस्ल-ए-जुदाई का धन्धा / ज़फ़र गोरखपुरी

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हमेशा है वस्ल-ए-जुदाई<ref>मिल्न और विरह</ref> का धन्धा
बुतों की है उल्फ़त ख़ुदाई का धन्धा

अगर बैठें रिन्दों<ref>शराबियों</ref> की सोहबत में ज़ाहिद<ref>धर्म उपदेश</ref>
तो दें छोड़ सब पारसाई का धन्धा

जो होना है आख़िर वो हो कर रहेगा
करे कौन बख़्त-आज़माई<ref>भाग्य आजमाना</ref> का धन्धा

परेशां रही उम्र पर न छोड़ा
तेरी ज़ुल्फ ने कज-अदाई<ref>टेढ़ापन</ref> का धन्धा

मुबारक रईसों को कार-ए-रियासत
गदा<ref>भिखारी</ref> को है काफ़ी गदाई<ref>निर्धनता</ref> का धन्धा

नहीं ख़िज्र के पीछे गर और झगड़े
तो है साथ इक रहनुमाई का धन्धा

‘ज़फ़र‘ इस से बहतर है ना-आशनाई<ref>प्रेम न करना</ref>
कि मुश्किल है ये आशनाई का धन्धा

शब्दार्थ
<references/>