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हम्मर ऊ गाँओ / ब्रजनंदन वर्मा

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बाबूजी के खेती-बारी,
माई के तुलसी के किआरी,
दूरा पर के पीपर की छांओ,
केन्ने गेल हम्मर ऊ गाँओ।

शहर-गाँओ में आपा-धापी,
बंद भेल हए सगरो काज,
ह्त्या, लूट, डकइती बढ़ल,
कहाँ गेलई पनचाईती राज।

कहिओ बाढ़ सुखारो आएल,
खेती-बारी डूबल गाँओ,
सरकारी त∙ बान्हों टूटल,
छप्पर होक गुजराल नाओ।

अब न कोनो गाँओ में होए,
रघु “का” के ठिठोली,
देओर-भउजी में न∙ होए
अब कोनो रंग रैली।

जिला-जबार के लोग बँट के,
बनल हए अगरी-पिछरी,
कदम डाढ़ न झुलुआ झूले,
अब न गावे कोनो कजरी।

पनचाईत न कोनो बइठे,
बरहम बाबा की ठाँओ,
राम-रहीम न गाबे पराती,
केन्ने गेल हम्मर गाँओ।