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हम अपने ही सिरजे जंगल में खोये / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
हम अपने ही सिरजे
अंधे जंगल में खोये
ध्वनियाँ थीं पर दृश्य नहीं थे
उस अंधे वन में
शब्द भटकते मिले वहाँ थे
हमको निर्जन में
काँटे चुभे पाँव में दिन-भर
जो हमने बोये
झरनों-झीलों की आहट थी
वह भी रुकी-रुकी
एक हठीली ठूँठ शाख
झरने पर दिखी झुकी
और बिरछ सब लगे वहाँ
सदियों पहले सोये
एक कोट था ऊँचा
जिससे राख झर रही थी
बुझे दिये आँखों के आगे
साँस धर रही थी
झुलसी पड़ी घास थी नीचे
तारे थे रोये