हम आज़ाद हैं... / शरद बिल्लौरे
सतरंगे पोस्टर
चिपका दिए हैं हमने
दुनिया के बाज़ार में
कि
हम आज़ाद हैं ।
हम चीख़ रहे हैं
चौराहों पर
हम आज़ाद हैं
हम आज़ाद हैं
क्योंकि हमने भूख से मरते
कर्ज़ के नीचे तड़पते
देशी हड़प नीति के वातावरण में
एक-एक श्वास को तरसते
अपने भाई को देखा है ।
अतः वस्त्रहीन स्वतन्त्रता को
धुली कमीज़ पहनाकर
हम प्रसन्न हैं ।
पर हम
नहीं देख पाए
कॉलर के नीचे जमा मैल
जो शनैः शनैः
खा रहा है कॉलर को
और जब अधिकांश खा जाएगा
भद्दी दिखेगी हमारी स्वतन्त्रता
और तब हम दौड़ पड़ेंगे
दर्ज़ी के पास
जो नई लगाने के बहाने
काट कर फेंक देगा पूरी
और मुकर जाएगा नई लगाने से
क्योंकि वह देख चुका है
पिछली नई का इतिहास
तड़प चुका है
उमसभरी स्वार्थ की दोपहरी में
भटक चुका है
झूठे वादों के रेगिस्तान में
अतः मात्र
इतिहास के पृष्ठ की लकीर
और पत्थर की प्रतिमा
की क़ीमत में
अब कोई गोद सूनी नहीं होगी
स्वतन्त्रता
कितनी प्यारी चीज़ है
मलाई की कटोरी की तरह
पर उसे घूर रही हैं
बगल में बैठी दुश्मन बिल्लियाँ
जिन्हें सिर्फ़
बन्दूकें नहीं मार सकतीं
घर में एक
मज़बूत प्यार का फन्दा भी चाहिए
जिसके अभाव में
हमारी आँखों के सामने
लुढ़क जाएगी मलाई की कटोरी
फाड़ देगी दुनिया
सारे रंगीन पोस्टर
और हम
सिर्फ़ सिर धुनेंगे
हमें पड़ेंगे पाग़लपन के दौरे
और आज ही की तरह
उस दिन भी हम चिल्लाएँगे
हम आज़ाद हैं
हम आज़ाद हैं
हम आज़ाद हैं
(शरद बिल्लौरे की यह कविता ’रीजनल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, भोपाल की वार्षिक पत्रिका ’प्रज्ञा’ में सन् 1974 में प्रकाशित हुई थी।
इस पत्रिका के सम्पादक थे लीलाधर मण्डलोई। कविता कोश को यह दुर्लभ कविता कवि शरद कोकास के सौजन्य से प्राप्त हुई)