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हम खड़े एकांत में / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
हम इधर एकांत में अपने खड़े
और खिड़की से
दिख रहा है क्षितिज तक
पसरा हुआ सागर
धूप ओढ़े लहर आई
और रेती पर
सोनकण बिखरा गई
अभी उड़कर गई
जो जलहंसिनी -
जोत-पट फहरा गई
और साँसों में बसे
जो कष्ट थे कल के
देख छवियाँ सिंधुतट की हुए पूजाघर
आरती करती हवा ने
छुआ हमको
हुई पावन देह सारी
गूँज आती घाट से है
पतितपावन
गा रहा है मंत्र मंदिर का पुजारी
खुल गये हैं द्वार
सारे ही समय के
हर दिशा में दिख रहे बस ढाई आखर