भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हम चले आए / योगेन्द्र दत्त शर्मा
Kavita Kosh से
अजनबीपन पीठ पर लादे हुए
हम चले आए पुराने गाँव से !
देह का चंदन गुलाबी बह गया
देखता मधुमास पीछे रह गया
मोमिया सपना झुलसकर शाम को
धूप की निर्मम कहानी कह गया
मरुथलों की दोपहर का शुक्रिया
कर दिया महरूम ठंडी छाँव से !
यातनाओं का, रखे सिर पर जुआ
दे रहा ख़ामोश खंडहर यह दुआ
दी बियाबानी हमें यह आपने
ख़ैर, जो कुछ भी हुआ, अच्छा हुआ
बस, यही अनुरोध है अब आपसे
ले न जाना अब हमें इस ठाँव से !
मंज़िलों से मोह कम होता रहा
मन निरंतर हौसला खोता रहा
थीं न जाने कौनसी मजबूरियाँ
तन थकन के बोझ को ढोता रहा
राह का सहयोग हमको यह मिला
रिस रहा है ख़ून अब तक पाँव से !