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हम जड़ों से कट गये / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'

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हम जडों से कट गये
नेह के वातास की हमने
कलाई मोड़ दी
प्यार वाली छॉंव हमने
गांव ही में छोड़ दी
मन लगा महसूसने
हम दो धड़ों में बंट गए

डोर रिश्तों की नए
वातावरण सी हो गई
थामने वाली जमीं हमसे
कहीं पर खो गई
भीड़ की खाता-बही में
कर्ज से हम पट गये

खोखले आदर्शों के हमने
मुकुट धारण किए
बेच कर हम सभ्यता के
कीमती गहने जिए
कद भले अपने बड़े हों
पर वजन में घट गए।