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हम ज़माने से फ़क़त हुस्न-ए-गुमाँ रखते हैं / सय्यद ज़मीर जाफ़री
Kavita Kosh से
हम ज़माने से फ़क़त हुस्न-ए-गुमाँ रखते हैं
हम ज़माने से तवक़्क़ो ही कहाँ रखते हैं
एक लम्हा भी मसर्रत का बहुत होता है
लोग जीने का सलीक़ा ही कहाँ रखते हैं
कुछ हमारे भी सितारे तिरे दामन पे रहें
हम भी कुछ ख़्वाब जहान-ए-गुज़राँ रखते हैं
चंद आँसू हैं कि हस्ती की चमक है जिन से
कुछ हवादिस हैं कि दुनिया को जवाँ रखते हैं
जान-ओ-दिल नज़्र हैं लेकिन निगाह-ए-लुत्फ़ की नज़्र
मुफ़्त बिकते हैं क़यामत भी गिराँ रखते हैं
अपने हिस्से की मसर्रत भी अज़िय्यत है ‘ज़मीर’
हर नफ़स पास-ए-ग़म-ए-हम-नफ़साँ रखते हैं