भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम तो बचपन में भी अकेले थे / जावेद अख़्तर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम तो बचपन में भी अकेले थे
सिर्फ़ दिल की गली में खेले थे
 
इक तरफ़ मोर्चे थे पलकों के
इक तरफ़ आँसुओं के रेले थे

थीं सजी हसरतें दूकानों पर
ज़िन्दगी के अजीब मेले थे
 
ख़ुदकुशी क्या दुःखों का हल बनती
मौत के अपने सौ झमेले थे

ज़हनो-दिल आज भूखे मरते हैं
उन दिनों हमने फ़ाक़े झेले थे