हम तो यूँ ख़ुश थे कि इक तार गिरेबान में है / फ़राज़
हम तो यूँ ख़ुश थे कि इक तार गिरेबान<ref>कुर्ते का गला</ref> में है
क्या ख़बर थी कि बहार उसके भी अरमान में है
एक ज़र्ब<ref>चोट</ref> और भी ऐ ज़िन्दगी-ए-तेशा-ब-दस्त!<ref> हाथ में कुदाली लिए हुए जीवन
!
</ref>
साँस लेने की सकत<ref>ताक़त</ref> अब भी मेरी जान में है
मैं तुझे खो के भी ज़िंदा हूँ ये देखा तूने
किस क़दर हौसला हारे हुए इन्सान में है
फ़ासले क़ुर्ब<ref>सामीप्य</ref> के शोले को हवा देते हैं
मैं तेरे शहर से दूर और तू मेरे ध्यान में है
सरे-दीवार फ़रोज़ाँ<ref>प्रकाशमान</ref> है अभी एक चराग़
ऐ नसीमे-सहरी!<ref>प्रात:कालीन हवा</ref> कुछ तिरे इम्कान <ref>संभावना</ref>में है
दिल धड़कने की सदा आती है गाहे-गाहे<ref>कभी-कभी</ref>
जैसे अब भी तेरी आवाज़ मिरे कान में है
ख़िल्क़ते-शहर<ref>शहर की जनता</ref> के हर ज़ुल्म के बावस्फ़ <ref>बावजूद</ref>‘फ़राज़’
हाय वो हाथ कि अपने ही गिरेबान में है