हम ना होंगे जब (मुक्तक) / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
11
औरों को दुख देकरके जो हरदम मुस्काता है।
खुद जलकरके जो औरों के घर झुलसाता है ॥
चैन कभी इस दुनिया में उसको मिलना है मुश्किल
औरों का रो देना जिसको ठण्डक पहुँचाता है॥
12
जग की सब नफ़रत मैं ले लूँ, तुमको केवल प्यार मिले।
हम तो पतझर के वासी हैं,तुमको सदा बहार मिले।
सफ़र हुआ अपना तो पूरा,चलते-चलते शाम हुई
तुझको हर दिन सुबह मिले, खुशियों का हर द्वार मिले।
13
किसी दिन मिटेगा अँधेरा सोच लो
कभी तो सजेगा सवेरा सोच लो
उजड़ा है माना नीड आँधियों में
बनेगा किसी दिन बसेरा सोच लो।
14
मत समझो कि मैं मगरूर हूँ,
वक्त के हाथों मजबूर हूँ
दिल में तुम्हारे बसा हूँ मैं
समझो नहीं कि बहुत दूर हूँ।
15
टूटी है नौका दरिया है गहरा
अंतिम हैं साँसें ऊपर है पहरा
जुबाँ भी कटी है कैसे मैं बोलूँ
अंधे मोड़ पर यह वक़्त है ठहरा
16
सदा पास तुमको पाया है मैंने
दर्द ज्यों दिल में छुपाया है मैंने
मुझे माफ़ करना आज मीत मेरे
तुमको बहुत ही सताया है मैंने
17
झुलसा हूँ मैं कि तुझे आँच न आए
कोई तेरे मन को चोट न पहुँचाए
मैं ठहरा तारा आखिरी पहर का
कौन जाने भोर कभी देख पाए।
18
भोर हुए जो सूरज निकला,उसको तो ढल जाना है।
माटी की नौका ले निकले,उसको तो गल जाना है।।
धूल- बवंडर आँधी-पानी,सब तो पथ में आएँगे।
इनसे होकर चलते जाना,हमने मन में ठाना है।।
19
हम ना होंगे जब आँगन में,तब सन्नाटा डोलेगा।
चुप्पी में कितनी बातें हैं,राज़ नहीं वह खोलेगा।
सिर्फ़ दुआएँ पास रही हैं,किसने पाया -खोया है।
यह तो जाने ऊपर वाला,पर वह कभी न बोलेगा।।
20
बहुत हैं अँधेरे
बुला लो सवेरे।
दीप है अकेला
घिरे हैं लुटेरे।