हम न द्रोही, हम न चारण
हम न लँका के विभीषण
हो रहे पल-पल तिरस्कृत
हस्तिनापुर में विदुर हम !
क्या यहाँ का मान, क्या सम्मान
कैसी पद-प्रतिष्ठा
हो जहाँ गिरवी रखी सँचेतना
हर मूल्य-निष्ठा
हैं अवाँछित हम सभा में
जी रहे हैं दुर्दशा में
देवताओं-बीच मानो
आ गए कोई असुर हम !
नय, अनय के बीच हमने
खींच दी क्या स्पष्ट रेखा
अन्धता क्या, चक्षुओं तक ने
हमें हंसकर न देखा
यह विवशता थी हमारी
कर न पाए चाटुकारी
नृप-सुहाती कह सकें कुछ
कब रहे इतने चतुर हम !
पद-प्रतिष्ठा से अनावश्यक
बन्धे बूढ़े पितामह
देखते असहाय-से भवितव्य
कुरुकुल का भयावह
मौन कृप हैं, द्रोण चुप हैं
स्यात् सत्ता के मधुप हैं
लालची, लोभी नहीं हैं
इसलिए लगते निठुर हम !
चाहिए कुछ भी न हमको
स्वस्थ मूल्यों को बचाते
और इसके लिए ही
अपमान पी-पीकर पचाते
हम नहीं पासे शकुनि के
अंश वेदव्यास मुनि के
जो उचित, कहते वही बस
सत्यदर्शी हैं मुकुर हम !
कब रहे धृतराष्ट्र को प्रिय
चुभ रहे दुर्योधनों को
हेय ही समझा हमारे
नीतिगत संशोधनों को
साधते बस सही सुर हम
रह नहीं पाए मधुर हम
अल्पमत में सदा रहते
हैं न सँख्या में प्रचुर हम !