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हम प्यार में हैं किसी मेट्रो में नहीं / दयानन्द पाण्डेय

मैं चूमना चाहता हूं तुम्हें

लेकिन किसी सड़क
किसी पार्क
किसी गलियारे
या अंधरे में नहीं
मैं तुम्हें
तुम्हारे घर आ कर
चूमना चाहता हूं
तुम्हारा हाथ
अपने हाथों में ले कर

या अपने घर बुला कर
तुम्हें चूमना चाहता हूं

मेरा तुम्हें चूमना
तुम्हें सिर्फ़ प्यार करना भर नहीं है
तुम्हारे सम्मान में बिछ जाना भी है

तुम आना किसी दिन मेरे घर
या बुलाना
अपने घर
मेरे प्यार में सुर्ख हो कर
अपने मन में
मेरे प्यार का
गुरुर भर कर

किसी रेस्टोरेंट में
चुपके से तुम्हारे साथ बैठना
मुझे परेशान कर देता है
लगता है कि हम चोर हैं
चोरी कर रहे हैं

प्यार चोरी तो नहीं है
प्यार गुनाह तो नहीं है
कि हम अपराधी बन जाएं

भले घर में दस लोग बैठे हों
हम तुम्हारे घर में बैठेंगे
या तुम हमारे घर में बैठो
हम बातें करेंगे
तुम्हारा मनुहार भी

जानती हो जब हम
क्लास बंक कर
तुम्हारे साथ सड़क पर होते हैं
लाइब्रेरी या सिनेमा घर में होते हैं
तो हम तुम्हारा साथ तो पा रहे होते हैं
एक सनसनी भी मन में भर रहे होते हैं
लेकिन भीतर ही भीतर मर रहे होते हैं
हम इस तरह मरना नहीं चाहते
जीना चाहते हैं तुम्हें
तुम्हारे प्यार और तुम्हारी प्यार की पुलक को

जैसे जीते हैं हमारे दादा दादी
हमारे मम्मी पापा
हमारा प्यार भी
ऐसे ही सहज और प्राणवान होना चाहिए

हम शादीशुदा नहीं हैं तो क्या हुआ
हम प्यार में हैं
किसी मेट्रो में नहीं

कि भीड़ के सागर में होते हुए भी
एक दूसरे को छू जाते हुए भी
नितांत अपरिचित, संवेदनहीन
और मरणासन्न स्थिति में रहें

हम प्रेम में हैं
और तम्हें चूमने की इच्छा
मेरे मन में

जाने तुम क्या सोचती हो
क्या तुम भी कभी मुझे चूमना
नहीं सोचती
कभी नहीं

यह कैसा प्रेम है

[27 नवंबर, 2014]