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हम मुट्ठी बन्द औरतें / विपिन चौधरी

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फ़रिश्ते आकाश से उतरते हैं
और हम मुठ्ठी बन्द औरतें धरती में समाती हैं
ज़्यादा अन्तर ने भी हमे दुःख दिया
कम अन्तर ने भी बरसो प्रतीक्षा करवाई
पर इस बार अन्तर कुछ अधिक घना था
घनी मूँछों और नाजुक बिछुओं में
हमारे मामले में एक जमा एक दो ही बनता आया था
बारहखड़ी का खाका भी हमारे क़रीब कुछ यूँ ही बना
कि कुछ मात्राएँ हमें देखने को भी न मिली
सब कुछ तभी बेआवाज़ था
जब हम पलकों की तरह खुलतीं और
मछली की तरह चलते-चलते ही सो लेती थीं
विप्लव तो इसके बाद आया
जब हम अपनी तयशुदा जगह से जरा-सी हिलीं
एक नसल के हाथ मे
दूसरी नसल की कमान देने का फ़ैसला ख़ुदा का था
पर तुम तो ख़ुदा के भी ख़ुदा निकले
बन्दर-बाँट के नाम पर
कुएँ के भीतर लटका डोल हमारे हाथ में थमा कर
दुनिया की और जाने वाली दिशा मे अन्तर्ध्यान हो गए
हमारी बाट देखने की आदत को तुमने खूब भुनाया
हम फूँकनी से फूँक मार-मार कर हलकान होती रहीं
तुम्हारे बच्चों को पिठ्ठू पर लटकाए
झूठी आस के सपने बुनती रहीं
हम सबके कानों मे तुम्हारी ही मरदूद कहानी थी
हम रंग छोड़ चुकी तस्वीरों
हम मुट्ठी बन्द औरतों की कहानी इतनी ही थी
कि हम
झूठे बचे-खुचे अन्न के टुकड़ों के साथ
एकमत से चुपचाप मुठ्ठी बन्द लिए ही परम धाम लौट गईं
तुम्हारी अखण्ड शान्ति में बिना कोई दख़ल दिए ।