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हम मूरख हैं / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र
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हम मूरख हैं
महानगर में भी
बरगद की छाँव खोजते
गुफाघरों की बस्ती में हैं
केवल नागफनी के जंगल
गुंबद-मीनारों में सूरज
उगते ही हो जाता ओझल
ए.सी. कमरों के
भीतर तो
अक्स भोर के दिखे काँपते
बरगद से छनकर जो आती धूप
उसी की याद लिये हम
अंधे युग के साये में भी
मर्यादा के संग जिये हम
पर्व मनाये
तब भी हमने
जब सपने तक मिले हाँफते
एक अधूरा गीत - साथ में है
वंशी-मादल की थाती
हमें टेरती रहती अक्सर
चौरे के दीये की बाती
उनके बूते
रहे सहज हम
रामराज की बात सोचते