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हम रातों को उठ उठ के / हसरत जयपुरी

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हम रातों को उठ उठ के जिन के लिये रोते हैं
वो ग़ैर की बाहों में आराम से सोते हैं

हम अश्क जुदाई के गिरने ही नहीं देते
बेचैन सी पलकों में मोती से पिरोते हैं

होता चला आया है बेदर्द ज़माने में
सच्चाई की राहों में काँटे सभी बोतें हैं

अंदाज़-ए-सितम उन का देखे तो कोई "हसरत"
मिलने को तो मिलते हैं नश्तर से चुभोते हैं