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हम हद-ए-इंदिमाल से भी गए / 'अर्श' सिद्दीक़ी
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हम हद-ए-इंदिमाल से भी गए
अब फ़रेब-ए-ख़याल से भी गए
दिल पे ताला ज़ुबान पर पहरा
यानी अब अर्ज़-ए-हाल से भी गए
जाम-ए-जम की तलाश ले डूबी
अपने जाम-ए-सिफ़ाल से भी गए
ख़ौफ़-ए-कम-माएगी बुरा हो तेरा
आरज़ू-ए-विसाल से भी गए
शोरिश-ए-ज़िंदगी तमाम हुई
गर्दिश-ए-माह-ओ-साल से भी गए
यूँ मिटे हम के अब ज़वाल नहीं
शौक़-ए-औज-ए-कमाल से भी गए
हम ने चाहा था तेरी चाल चलें
हाए हम अपनी चाल से भी गए
हुस्न-ए-फ़र्दा ख़याल ओ ख़्वाब रहा
और माज़ी ओ हाल से भी गए
हम तही-दस्त वक़्फ़-ए-ग़म हैं वही
तंग-ना-ए-सवाल से भी गए
सज्दा भी 'अर्श' उन को कर देखा
इस रह-ए-पाएमाल से भी गए