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हरसिंगार / सरोज परमार

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जाओ न,लाओ न, हरसिंगार का गुलदस्ता
जो मेरे और तुम्हारे बीच महकते-महकते
पहरों न खत्म होने वाली बातें भोगता था
उसकी मुर्झाई पीली पत्तियाँ
एक दूसरे पर फेंकते हम बेसाख़्ता हँसते थे
और गुम हो जाते थे उन पलों के दड़वों में।
दर्द दहलीज़ से लौट जाया करता था।
जाओ न, लाओ न, वो हरसिंगार का गुलदस्ता
शायद उसकी ख़ुश्बू से हमारा ठण्डापन
पिघल जाए।
आज फिर वही मेज़, वही गुलदस्ता
वही तुम वही ही मैं,
आज हरसिंगार तरोताज़ा है
हम बेहद बासी,पीले,मुर्झाए
बिखरे-बिखरे से।
समस्याओं के तकियों में ठुड्डी ग़ड़ाए
अपनी अपनी खरोंचों को छुपाए
घिसटते, गिरते,सम्हालते,निभ और निभा रहे हैं
ज़िन्दगी की आधी चपाती बीच में,
बेदिली से तकते हम दोनों
हँसी दहलीज़ से लौट जाते है।
जाओ न लाओ न,बही हरसिंगार का गुलदस्ता
जाओ न, लाओ न।