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हरा- भरा कोई फलदार कोई ठूँठ रहा / दरवेश भारती

हरा- भरा कोई फलदार कोई ठूँठ रहा
दरख़्त ही तो है इन्सान बाग़े-आलम का

जब आज ग़ौर से देखा उसे तो ऐसा लगा
मुँडेर पर हो रखा जैसे कोई बुझता दिया

न जाने कैसी लगायी थी रहनुमाओं ने
तमाम शह्र मिला आग में झुलसता हुआ

वो इन्क़लाब के नारे जो गूँजे थे घर-घर
दबा दिये गये यूँ उनका कुछ पता न चला

ये ख़्वाहिशें हैं मिटेंगी न ये किसी सूरत
मुफ़ीद इनके लिए है कोई दवा न दुआ

उसे न आदमी कहिये कि इक फ़रिश्ता था वो
पराई आग में जो अपनी जां पे खेल गया

कहाँ सुकून मयस्सर हुआ उसे 'दरवेश'
अना को मान लिया जिसने अपना राहनुमा