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हरा शाश्वत है... / राजाराम भादू / शशिप्रकाश

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राजाराम भादू का लेख

अन्वेषा के आयोजन में शशिप्रकाश जी से लम्बी चर्चाएँ हुई। यह आयोजन पिछले वर्ष (फरवरी, २००० में) देहरादून में हुआ था जिसमें देश भर से अनेक संस्कृति-कर्मी, साहित्यकार औरकी बुद्धिजीवियों ने शिरकत की थी। इससे पहले उनसे मेरा संवाद कभी दुआ-सलाम से आगे नहीं बढ़ा था। जब मैं लौटने लगा तो उन्होंने अपने दो कविता-संकलन मुझे दिए — ’कोहेकाफ़ पर संगीत- साधना’ और ’पतझड का स्थापत्य’। ये दोनों संकलन परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ से छपे हैं। इनमें शामिल कविताओं का चयन और सम्पादन कात्यायनी और सत्यम ने किया है। इन संकलनों में शशिप्रकाश की कविताओं पर सम्पादकीय लेख है, जो आख़िर में दिया गया है। किन्तु संकलनों पर कहीं कवि का परिचय और फ़ोटो नहीं दिया गया है। बल्कि लेख में भी उनका औपचारिक परिचय नहीं है, जैसे यह मानकर चला गया है कि पढ़ने वाले इतना तो उन्हें जानते ही हैं।

मुझे नहीं लगता, हमारी समकालीन कवि-बिरादरी में बहुत लोग शशिप्रकाश को कवि के रूप में जानते-पहचानते होंगे। हालाँकि कुछ लोग जानते ज़रूर है लेकिन वे उन्हें कवि की तरह पहचानना नहीं चाहते। जब कात्यायनी ने कवि के रूप में पहचान बनाना शुरू किया था, तब यह प्रवाद फैलाने की कुचेष्टा की गई थी कि उनके लिए कविताएँ शशिप्रकाश लिखते हैं। बहरहाल, वैसे भी शशिप्रकाश का कवि एक तरह से उनके राजनीतिक विचारक, रणनीतिकार और कार्यकर्ता के नेपथ्य में रहता है। मेरी तरह ज़्यादातर लोगों ने उनकी कविताएँ कभी-कभार दायित्वबोध, सृजन-परिप्रेक्ष्य और आह्वान जैसे उनके अपने प्रकाशनों में ही पढ़ी होंगी। ऐसे पाठकों के लिए ये संकलन उनके कवि से गाढ़ा परिचय कराते हैं। इन संकलनों में शताब्दी के सन्धिकाल (सन २०००- से पहले और बाद ) की कविताएँ संकलित हैं।

शशिप्रकाश ने कविताएँ १९८० से पहले लिखना शुरू किया था। सम्पादकीय लेख में कात्यायनी-सत्यम ने बताया है कि १९८१ तक शशिप्रकाश की कविताएँ भंगिमा ( गोरखपुर ), बोध ( कलकत्ता ), परिबोध और युग- परिबोध ( दिल्ली ), उत्तरार्द्ध ( मथुरा ), वर्तमान ( इलाहाबाद ), और वर्तमान साहित्य ( गाजियाबाद), पुरुष और आईना ( मुजफ्फरपुर ), लोकचेतना वाराणसी और उस दौर की बहुतेरी लघु- पत्रिकाओं में छपी थीं। उल्लेखनीय है कि इस दौर में नई रचनाशीलता को लघु-पत्रिकाएँ ही सामने ला रही थी। शशिप्रकाश की ये कविताएँ संचयन के रूप में नहीं आई हैं जो कि उनकी सृजन-यात्रा का आरम्भिक चरण हैं। एक लम्बे अन्तराल के बाद कौसानी और भवाली में लिखी गई कविताओं की शृंखला सहित २५ कविताएँ दायित्वबोध ( मार्च- जून, १९९८) में प्रकाशित हुई। कुछ कविताएँ सर्वनाम, समकालीन तीसरी दुनिया और पहल में आईं। सृजन-परिप्रेक्ष्य के प्रवेशांक में प्रकाशित कविताओं में ’शिशिर-सिम्फ़नी’ के अतिरिक्त ’नींद और जीवन की ऊष्मा-गतिकी’ नामक दो और महत्वपूर्ण कविताएँ शामिल थीं। यहीं से प्रायः हम उनके कवि को जानते हैं और ये कविताएँ इन संकलनों में हैं। लेकिन इसके बाद, इन संकलनों के आने से पहले उनकी कविताओं का प्रकाशन-क्रम अवरुद्ध है। सम्पादकीय लेख में प्रेम कविताओं की एक डायरी का भी उल्लेख है, वह भी पुस्तक रूप में नहीं आई है। मुझे लगता है कि इन संकलनों के बाद से अब तक उन्होंने एक संकलन जितनी कविताएँ तो और लिखी ही होंगी, तो इस तरह उनके कवि का कुछ मुकम्मल चित्र बन सकता है, जो पाँच दशकों में फैला है।

सम्पादकीय लेख में यह सही कहा गया है कि ये एक उन्नत राजनैतिक चेतना-सम्पन्न कवि और आकुल कवि-हृदय राजनैतिक कार्यकर्ता की कविताएँ हैं। ऐसी कविताओं का आह्वान-मूलक होना स्वाभाविक है। सम्पादकों के अनुसार, इन्हें एजिटेशनल प्रापर्टी और एजिट प्राप पाेइट्री कहा जा सकता है। साथ ही यह भी कहा गया है : शशिप्रकाश की कविताएँ गहन और व्यापक अर्थों में राजनैतिक कविताएँ हैं, पर ये इस भ्रान्ति का निराकरण कर देती हैं कि राजनैतिक कविता का मतलब नारेबाज़ी, सपाटबयानी, आह्वानमूलकता या कविता में स्थूल रूप से राजनैतिक सिद्धान्त-निरूपण होता है। जो कुछ कविताएँ सहज स्पष्ट राजनैतिक अन्तर्वस्तु या प्रत्यक्ष सम्बोधन की कविताएँ हैं, वहाँ भी सौन्दर्य-निषेधी राजनीतिक वाचालता नहीं है, बल्कि व्यग्र-आतुर आग्रह और उदात्त- गम्भीर आह्वान है। उन्होंने यह भी कहा है कि ये कविताएँ कविता लिखने का प्रयोजन सामने रखकर लिखी गईं सायास कविताएँ हैं ही नहीं।

उन्होंने युवाओं को सम्बोधित आधा दर्जन से अधिक कविताएँ लिखी हैं लेकिन ये अपने समय की ऐसी अन्य कविताओं से इसलिए भिन्न हैं कि इनमें पराजय, हताशा और ग़लतियाँ करने के भी सन्दर्भ हैं। इसके अलावा उनकी कविताओं में आत्मालाप कम नहीं है, जैसे वे निरन्तर अपने से जिरह करते रहते हैं। ’स्वगत’ शीर्षक से एक दशक के अन्तराल में लिखी उनकी दो कविताएँ हैं जिनमें माइन्यूट डिटेल्स हैं। बेशक, ’शिशिर- सिम्फ़नी’ भी इसी प्रकृति की कविता है। कात्यायनी-सत्यम भी मानते हैं कि शैली की दृष्टि से उनकी अधिकांश कविताएँ सब्जेक्टिव पोयट्री की कोटि में आती हैं। लेकिन यहाँ भी वे उनमें बाह्य-जगत का परावर्तन देखते हैं और उसे कविता में द्वन्द्वात्मक अप्रोच से जोड़ते हैं। इसके लिए उन्होने इतिहास-बोध शीर्षक कविताओं का सन्दर्भ भी दिया है। इसी लेख में कविता को लेकर शशिप्रकाश के विचारों का सन्दर्भ दिया गया है, जिसमें वे कहते हैं : कभी-कभी जीवन के कुछ अमूर्त से अन्तर्विरोधों, कुछ निर्माणाधीन परिघटनाओं, कुछ तरल परिस्थितियों को किसी सैद्धान्तिक लेखन में सूत्रबद्ध कर पाना कठिन होता है, लेकिन वही द्वन्द्व कविता के फ़ार्म में ढल जाते हैं। कभी-कभी कोई सच्चाई अमूर्त रूप में कविता में अपने पहले आ जाती है और बाद में वह अधिक ठोस और प्रत्यक्ष गोचर होकर सामने आती है। मुझे लगता है कि शशिप्रकाश के इस अनुभव-विचार को हमें गम्भीरता से लेने की ज़रूरत है।

’कोहेकाफ़ पर संगीत-साधना’ के प्रास्ताविक में ही काव्यात्मक न्याय का उल्लेख करते हुए शशिप्रकाश कविता के लिए कहते हैं :

(वह तो लगी ही रही साथ-साथ लगातार
पर अव्यक्त, अन्धेरी पार्श्वभूमि में)

ज़ाहिर है कि वे कविता की स्वायत्तता को स्वीकार रहे हैं। तभी वे यह कह पाते हैं :

तानाशाह उन स्मृतियों से डरते हैं
जो माँओं के जेहन और बच्चों के मासूम सवालों में पलती हैं।

वसन्त और सिम्फ़नी उनकी कविता में मुक्ति के रूपक है। ये कैसी विडम्बना है कि म्याँमार बने उस समय के बर्मा में आज फिर युवा लड़ते हुए दमन-उत्पीड़न झेल रहे हैं, जिसके पीछे चीन ही उत्तरदायी है। शशिप्रकाश की कविता में चिन्तन-प्रवाह चलता रहता है —

शब्द वह कौन-सा होगा जीवन का स्थानापन्न ?
कभी-कभी अकेले भी पड़ जाना होता है
अकेले भी जीना होता है
अकेले भी चलना होता है
जैसे कि कभी-कभी बिखरना भी होता है
और टूटना भी।

वे गरुड़, सेनापति और अन्वेषक के अकेले होने की नियति का उल्लेख करते हैं। कविता से वह गुहार करते हैं — मुझे खोलो, परत दर परत। मृत्यु उनकी कई कविताओं में आती है, जिसके विपर्यय में वे जीवन को देखते हैं — मृत्यु का न होना ही जीना रहा — इसे वे जीना नहीं मानते। उनके लिए मृत्यु पर सोचना मृत्यु से लड़ना है। इसी तरह स्वप्न उनकी कविताओं में गहरे निहितार्थ लिए हैं, विशेषकर अन्धेरे के विरुद्ध आशावाद के अर्थ में। जैसे कि अपने ख़ुद के प्रयोगों से अर्जित करते हुए :

कठिनतम समय में भी
कोई नई शुरुआत की जा सकती है।
वे साझीदारी के लिए प्रस्ताव करते हैं —
मगर हम सबकी हैं
अलग- अलग कुछ उदासियाँ
और कुछ मायूसियाँ
और अपनी अलग-अलग
कुछ तनहा उनीन्दी रातें भी।
इन्हे भी बाँट लें क्या ?

हिमालय प्रवास की एक कविता में मानसून चक्र पर देखे —

चलना है यहीं से बरसते हुए
यहाँ
बहुत अधिक रुकना
हिमनद बनना है।

ज़ाहिर है कि ये कवि का महज निर्वैयक्तिक अवलोकन नहीं है। जैसेकि —

यात्राओं के लम्बे अनुभव
होने चाहिए —
सफल और असफल दोनों ही,
कवि- मन में स्वाभाविक रूप से —
दुर्निवार इच्छा जगती है
नैसर्गिकता से मिलने की,
लेकिन उनके पास जीवन कम हैं और काम बहुत है।

सम्भवतः शशिप्रकाश की कविताएँ इसलिए अलहदा हैं कि वे जीवन की गतिकी को उसकी जटिलता और धूप-छाँही रंगों में देखते है। अपनी राजनीतिक संलग्नता और दर्शन को यथार्थ के विन्यास में ग्रहण और प्रस्तुत करते हैं। तभी वे पाते हैं :

छाँह चाहिए ज़रूर
मगर अपनी छाया तो
छाँव भी नहीं देती।

उनका यह भी अवलोकन है कि —

(मेमने को प्यार करें
पर बेहतर हो, मेमना होने से बचें)

वे युवाओं को भविष्य के प्रति आश्वस्त नहीं, बैचेन करना चाहते है। भविष्य के अरुण कमल के लिए अभिव्यक्ति के ही नहीं, विद्रोह के खतरे भी उठाने पड़ेंगे। इस तरह एक नया सौन्दर्यशास्त्र रचने की बात उनके यहाँ भी है। उनके ’ज़िन्दगी ने एक दिन कहा’ जैसे गीतों में हम यह संश्लेषण पाते हैं। उनके शेष समर में भविष्य के चुनौतीपूर्ण कार्यभार काफ़ी साफ़ दर्ज हैं।

उनके दूसरे संकलन में उनकी कल्पना — ज्यों ऋतुओं के बारे में सोचती वनस्पतियों — जैसा विन्यास प्रस्तुत करती है तो तर्कणा अतीत की सीमाएँ रेखांकित करती है :

महानतम अतीत के साँचे में भी
अँट नहीं पाता भविष्य ।

ग्रीष्म में झुलसी हुई घास में विद्यमान बीजों पर उनके पुनर्जन्म का विचार टिका है। पराजय और नैराश्य उनके लिए कठोर वास्तविकता का अनिवार्य पहलू है :

कुछ उदास, कुछ चिन्तित और कुछ
चिन्तनमग्न कविताओं के लिए
वे अपना पुनर्जन्म समर्पित करते हैं।

एक बिम्ब देखें :

तुम सोचने लगे उन दिनों के बारे में
जब आवारा पत्ते की तरह
उड़ते रहे तुम

उनकी सम्वेदना का धरातल स्त्रियों के सन्दर्भ में पता चलता है :

अकथ दुखों के बीच भी
हर्ष से हुमकने-छलकने की क्षमता रखने वाली स्त्रियाँ,

’शिशिर- सिम्फ़नी’ कविता उन्होंने अपनी अम्मा को समर्पित बल्कि सम्बोधित की है और उसमें उनकी माँ का अत्यन्त वत्सल और उदात्त चरित्र उभर कर आता है। इस कविता में कवि का आत्मसंघर्ष पूरी पारदर्शिता में उभरता है, जिसमें उसकी कोशिश रही कि — ’सार्वजनिक न हो सकें मेरे अपने दुख।’ और ये पंक्तियाँ :

दुनिया में जिस हद तक होगा
किसी के पास एक माँ जैसा दिल
उतनी ही उसकी समझ होगी
कविता की, लोगों की, जीवन और स्वप्नों की,
उतना ही वह समझ सकेगा
भविष्य के रहस्य-संकेत।

इस कविता की अद्भुत बिम्ब-योजनाओं में एक में कवि अपनी एक बाघ और माँ की नदी के रूप में कल्पना करता है। एक चान्दनी रात में जब वह दबे पाँव आकर पानी पी रहा होता है तो अचानक मां चौंकती है, यह चप-चप की आवाज़ कहाँ से आ रही है। एक और बिम्ब — गिलहरी की तरह अनाज या सम्वेदना या दोस्ती या प्यार का हर दाना दोनों हाथों से थामने — का है। उनके द्वन्द्ववाद का एक प्रभावी उदाहरण भी यहाँ है —

इसलिए तुम्हें अभी जागते रहना है
मेरे भीतर
और मुझसे आज़ाद,

वैयक्तिक इयत्ता मूलतः सामूहिकता की अनिवार्यत: विरोधी नहीं है। इसीलिए उतनी ही ये कविताएँ समाज के मानवीय होने की विफलता के बारे में भी हैं।

’जीवन की ऊष्मा-गतिकी में’ — छोटी छोटी हारें बड़ी हार का ज़ख़्म हरा करती हैं। कवि का एक अहसास है :

ऊपर झुके एक सपने की पलकों से
गर्म आँसू की एक बून्द
मेरे चेहरे पर ।

अक्सर कविता से स्वयं कवियों की अभीप्साएँ आदर्शों के शिखर तक होती हैं। शशिप्रकाश की अभीप्साएँ भी वैसी ही हैं लेकिन कुछ बहुत उपयुक्त हैं — कविता में भविष्य के बयान इतने साफ़ हों जैसे अतीत की स्मृतियाँ। इसी के साथ वे लोगों से कविता को हृदय से लेने का भी आह्वान करते हैं। कविता की उनकी खोज स्वप्न से जागृति में प्रवेश करती है। दुख वहाँ इसलिए केन्द्र में आते हैं क्योंकि —

दुख के कारणों की तलाश से ही
शुरू होती है मुक्ति की यात्रा ।

दुख ही संवेगों को जन्म देते हैं। अन्धेरे की उनकी व्याख्या भी बहुत महत्वपूर्ण है —

रात का अन्धेरा सिर्फ़ काला नहीं होता
उसमें कई रंग घुले होते हैं।

रंगों के सिलसिले में वे गोयटे को उद्धरित करते हैं जो थियरी को ग्रे कहते हुए हरे रंग को शाश्वत करार देते हैं। किन्तु शशिप्रकाश के अनुसार विचार भी हरे हैं। वे जिन संघर्षों से सम्बद्ध हैं, उनके बारे में उतना ही सच बोलते हैं — ’यह युद्ध है ही ऐसा कि इसमें खेत रहे लोगों को श्रद्धांजलि नहीं दी जाती।’ असल में यह लड़ाई कई स्तरों पर अनेक रूपों में चलती है। अपनी कविताओं में वे कल्पनालोक की मुक्ति के सवाल को उठाते हैं, जिसे न्गुगी वा थ्योंगो ने ’डिकोलोनाइजिंग द माइण्ड’ में उठाया था क्योंकि इसके बिना ज़िन्दगी का नया पाठ सम्भव नहीं है। यहीं शशिप्रकाश का सौन्दर्यशास्त्र गुणात्मक रूप से भिन्न है। कविता के जरिए उनकी स्व की, अपने घर और इतिहास की खोज कल्पना की इसी मुक्ति का उपक्रम है।

उनकी दो कविताएँ देने का मोह में छोड़ नहीं पा रहा हूँ।

(एक) — द्वार पर घण्टी बज रही है !

द्वार पर घण्टी बज रही है।
मैं कम नहीं सुनता।
भूलने वालों से ईर्ष्या करना
मेरी कमज़ोरी है।

एक बूढ़ी स्त्री
अपने पुराने फटे शाल को
लपेटती है
अपने जर्जर शरीर के इर्द-गिर्द
और उड़ते- दौड़ते पत्तों के
शोर के बीच
एकाकी क़ब्र पर फूल रखती है।
द्वार पर घण्टी बज रही है।
कौन है आख़िर ?
सर्दियाँ तो अभी आधी भी नहीं बीत सकी हैं।

(दो) — कौसानी में एक सुबह

एक —
तान छिड़ी
दो —
सिर्फ़ दो पक्षियों ने
सुर मिलाए।
इतने सारे-इत्ते सारे
बहुरंगी
फूल जो खिले
लयबद्ध
गति में
हिले

प्रकृति
सुबास सजी
हृदय में
कहीं एक
मुक्तिदायनी
सिम्फ़नी बजी।

— राजाराम भादू