Last modified on 26 अप्रैल 2017, at 16:48

हरिअर हरिअर लेमुआँ कि हरिअर / अंगिका लोकगीत

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

प्रस्तत गीत उपनयन के समय ‘घिउढारी’ के अवसर पर भी गाया जाता है। मंडप पर घी ढरकने के कारण उससे प्रज्वलित अग्नि का प्रकाश स्वर्ग तक पहुँचने और उसको देखकर वंशवृद्धि का अनुमान करके देवताओं और पितरों के प्रसन्न होने का उल्लेख इस गीत में हुआ है।

हरिअर हरिअर लेमुआँ<ref>नींबू</ref> कि हरिअर जब<ref>जौ; यव;; रबी की एक फसल</ref> केर गाछ<ref>पेड़; पौधा, गाछ</ref>।
एक अचरज हम सुनलाँ, कवन<ref>सुना</ref> बाबा के मँड़बा रे जनेऊ हे॥1॥
मँड़बा चढ़ि बैठथिन कवन बाबा, गेंठी जोड़ी कनियाँ मामा<ref>दादी</ref> हे।
मँड़बाहिं घिअवा<ref>घी</ref> ढरकि<ref>ढुलक गया</ref> गेल, सरगहिं<ref>स्वर्ग में</ref> भय गेल इँजोत<ref>प्रकाश</ref>।
सरग के देब लोक<ref>देवलोक; देवता लोग; पितर लोग</ref> अनंद भेल, आब<ref>अब</ref> बंस बाढ़त हे॥2॥

शब्दार्थ
<references/>