हरितपर्ण वृक्ष / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
व्य´्जित जब हो गए गूढ़ जीवन के अर्थ अगोचर,
खुली हुई पुस्तक-सी विस्तृत वसुन्धरा के ऊपर।
उसके प्रथम पृष्ठ पर तब थी जिनकी कीर्ति प्रकाशित,
वे मानव थे नहीं; लता, द्रुम, हरित गुल्म थे शोभित!
अपनी ओर देखने का जो देते मीन निमन्त्रण,
करते जो निज तप-फल का पर-हित के लिए विर्सजन।
धन्य हुई है धरा, जिन्हें अन्तर्पट पर धारण कर,
जिनकी मुकुलित भुजवल्लरियों का आलिंगन पाकर।
उनके उत्कण्ठातुर मूल बीज मृण्मय भूतल पर,
प्रथम बार जब निकले होंगे तिमिर-गर्भ से बाहर।
तब होंगे वे कितने कोमल, सरल, संकुचित, लघुतर,
कितने स्वप्न रहे होंगे अवगुंठित उनके भीतर?
पर वे अल्पसत्व अंकुर ही लघुता के रूपान्तर,
देश-काल की व्यापकता को कोश-तन्तु में भर कर!
हैं बन गए सुदीर्घकाय, दृढ प्रबल महत्तर तरुवर,
चले गए दुर्लंध्य व्योम के नील शृंग तक ऊपर।
रस के समाहरण पर ही इनका जीवन है निर्भर!
अगणित कोशों से निर्मित हैं इनके मृदुल कलेवर!
रोम-तन्तुओं से, पर्णांगों से पाकर गति, जीवन,
होता है इनमें विकास, इनमें मौलिक परिवर्तन।
क्या जल, उष्ण प्रकाश चाहिए, गन्ध-पवन इनको भी?
खाद्य वस्तुओं की चिन्ता क्या रहती है इनको भी?
इसीलिए क्या भू के गोपन अन्तःपुर में जाकर?
रस-स´्चित करते हैं इनके जीवन-जन्तु मृदुलतर?
भोजन के चिन्तन में ही क्या इनके मूल निरन्तर,
दूर-दूर तक फैले रहते हैं पृथिवी के अन्दर?
इसी प्रयोजन से क्या इनके पर्ण-दुकूल गगन में,
नव प्रकाश की ओर झुके रहते हैं मुक्त पवन में,
कैसे एक विशेष रीति से वृन्त-वृन्त पर शोभित,
सजे कतारों में रहते हैं इनके पर्ण नियोजित?
खड्गाकार, कटावदार, करतलाकार संवर्धित,
दीर्घतीक्ष्ण, लोमश, प्रलम्ब कंटकित, सदन्तुर, कुंठित।
देखो इनतें सुषमा की है रंग-किरण प्रतिविम्बित!
इनके भिन्न-भिन्न अवयव हैं एक परिधि में केन्द्रित!
इनकी बाह्य विपुलता में है एक सूत्रता इंगित!
इनकी मूल इयत्ता में है अनन्तत्व अन्तर्हित!
भाँति-भाँति के चित्रांकन हैं इनमें व्य´्जित, देखो!
है यथार्थ के साथ कला इनमें संयोजित, देखो!
इनकी आँखों में है विम्बित अर्थ अपरिमित, देखो!
जीवन का है क्षीर-सिन्धु इनमें आन्दोलित, देखो!
पृथिवी की स्वर्णिम विभूति है लुंठित इनके नीचे!
सृष्टि-वीण की स्वर-लहरी है झंकृत इनके नीचे!
युग-युग के संकल्प-मन्त्र हैं मुखरित इनके नीचे!
वर्त्तमान, भावी, अतीत हैं स्पन्दित इनके नीचे!
यों है इनकी आयु काल के मापदण्ड से परिमित!
किन्तु, चिरन्तन बीज-द्रव्य इनके रहते हैं जीवित!
शत-सहस्र वर्षों से होते हुए निरन्तर विकसित!
जहाँ आज हैं, वहाँ पहुँच कर ये हैं खड़े प्रफुल्लित!
जब तक ये प्रिय, सौम्य, मृदुल हैं, तब तक अजर-अमर हैं!
जब बन जाते हैं कठोर, तब हो जाते जर्जर हैं!
मृदुल प्रफुल्ल, मनोज्ञ कीर्त्तिमत जीवन के सहचर हैं!
और पुराण-पुरुष जड़ता के शरणागत अनुचर हैं!
स्वार्थ-तिमिर से भरा हुआ कालुष्य नहीं इनमें है!
ये तितिक्षु हैं, क्योंकि दिव्य उत्सर्ग-वृत्ति इनमें है!
ये विनम्र हैं, विनयशील हैं, क्योंकि वदान्य विदित हैं!
ये प्रशान्त हैं, तपःपूत हैं, क्योंकि प्रशस्त, महत हैं!
पट-मण्डप जीवन का जनपद के अ´्चल में केन्द्रित,
अरुण-श्याम इनके पल्लव-तोरण से हो अभिनन्दित!
नव उमंग-अंकुर अन्तर-प्रांगण में निखिल भुवन के,
रहें पनपते रस पा कर इनसे नव परिवर्त्तन के!
हरिद्वर्ण ये विटप-वृन्द होकर यों ही उत्फल्लित,
करते रहें हमें अपनी संचित निधियों को अर्पित!
बना रहे सम्बन्ध हमारा इनके साथ अखण्डित!
अपने हृदय-केन्द्र में हम इनको फिर करें प्रतिष्ठित!
(‘नया समाज’, जुलाई, 1957)