मैं, हरित वन की बाँसरी।
श्याम के मधुमय अधर की वारुणी पी बावरी;
सखि, हरित वन की बाँसरी।
गाँस से प्रति पोर गुम्फित
अंग कूवर, वंश ग्रन्थित,
सुमन-रहित करील-सा
जीवन वृथा जग मंे कलंकित।
शून्य नभ को देखती-सी विजन वन में थी खड़ी;
सखि, जब नहीं थी बाँसरी।
शिशिर-निशि में तुहिन-कम्पित
विवसना, घन में विकम्पित,
ग्रीष्म-उष्ण-समीर में थे
प्राण-कोकिल तृषित, शंकित।
त्रिगुणापूरित मन-गगन था इन्दुविधुरा शर्वरी;
सखि, जब बनी थी बाँसरी।
साधना में स्वर्ण-सा गल
वेदना की अग्नि में जल,
प्रेम की लोहित श्लाका से
छिदाकर मर्म कोमल
मृत्यु में जीवन छिपाए बन गई मैं नागरी;
सखि, प्रेम की मैं बाँसरी।
अंगराग-पराग-रंजित
नेह-गंग-तरंग-सिंचित,
स्वप्न-निर्मित तूलिका से
प्यार का उद्गार संचित।
कर दिया अंकित पिया ने हृदय पर सोल्लास री;
सखि, मद-भरी मैं बाँसरी।
हृदय रस का स्वनित उद्गम
प्रणय का अनुरणित सरगम,
प्रणय में सरजन समाहित
सृजन में चिर क्वासि का सम।
सुन सजनि है नाभि-सर में अमरता की माधुरी;
सखि, हरित वन की बाँसरी।
घुमड़ते रस-मगन मन-घन
सिहरते युग नयन-खंजन,
फूटते मृदु प्रणय-निक्वण
मर्म-ध्वनि, स्वर-वर्ण, कम्पन।
फूँकता जब श्याम मेरे प्राण में उच्छ्वास री;
सखि, रसवती मैं बाँसरी।
(रचना-काल: जनवरी, 1940। ‘हंस’, फरवरी, 1941 में प्रकाशित।)