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हरियाली - १ / नरेश अग्रवाल
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फल गिरे नहीं की
वृक्षों का काम फिर से शुरू
और था कितना बचकाना प्रयास मेरा
सब कुछ देख लेना चाहता था
अपनी खुली-खुली आँखों से
और हँसते होंगे वृक्ष भी मुझ पर
कितना सारा समय तो निकाल ही दिया
चाँद की तरह मेरी जिन्दगी
कभी पूरी की पूरी
फिर घटती - बढ़ती हुई
हरियाली तुम भी तो इसी तरह हो ।