भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हरियाली / दुष्यन्त

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हरा- भरा है
शहर की पॉश कॊलोनी का
हरेक घर।

उठती है आवाजें
ख़ुशियाँ, अठखेलियाँ, टीस, सिसकियाँ
और दब जाती है
बिना आंगन के घर में

बाहर सब कुछ वैसा ही है
लोकल बसें
दो-चार तांगे
पाँच-दस कारें
अनगिनत ऒटोरिक्शा और हाथ रिक्शा

हरा-भरा है
हरेक शहर की पॉश कॊलोनी का
हरेक घर।

 

मूल राजस्थानी से अनुवाद- मदन गोपाल लढ़ा