भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हरि बिन ना सरै री माई / मीराबाई

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग शुद्ध सारंग


हरि बिन ना सरै री माई।
मेरा प्राण निकस्या जात, हरी बिन ना सरै माई।
मीन दादुर बसत जल में, जल से उपजाई॥
तनक जल से बाहर कीना तुरत मर जाई।
कान लकरी बन परी काठ धुन खाई।
ले अगन प्रभु डार आये भसम हो जाई॥
बन बन ढूंढत मैं फिरी माई सुधि नहिं पाई।
एक बेर दरसण दीजे सब कसर मिटि जाई॥
पात ज्यों पीली पड़ी अरु बिपत तन छाई।
दासि मीरा लाल गिरधर मिल्या सुख छाई॥


शब्दार्थ :- सरै =चलता है, पूरा होता है। दादुर =मेंढक। लकरी =लकड़ी। अगन =अग्नि, आग। पात =पत्ता। सुख छाई = आनन्द छा गया।