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हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुश्‍किल नहीं फ़ुसन-ए-नियाज़ / ग़ालिब

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हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुश्‍किल नहीं फ़ुसन-ए-नियाज़
दुआ क़ुबूल हो या रब कि उम्र-ए-ख़िज़्र दराज़

न हो ब-हर्ज़ा बयाबाँ-नवर्द-ए-वहम-ए-वुजूद
हुनूज़ तेरे तसव्वुर में है नशेब-ओ-फ़राज़

विसाल जल्वा तमाशा है पर दिमाग़ कहाँ
कि दीजे आइना-ए-इन्तिज़ार को पर्दाज़

हर एक ज़र्रा-ए-आशिक़ है आफ़ताब-परस्त
गई न ख़ाक हुए पर हवा-ए-जल्वा-ए-नाज़

न पूछ वुसअत-ए-मै-ख़ाना-ए जुनूँ ‘गालिब’
जहाँ ये कासा-ए-गर्दूं है एक ख़ाक-अंदाज़

फ़रेब-ए-सनअत-ईजाद का तमाशा देख
निगाह अक्स-फ़रोश-ओ-ख़याल-ए-आइना-साज़

ज-बस-कि जल्वा-ए-सय्याद हैरत-आरा है
उड़ी है सुफ़्हा-ए-ख़ातिर से सूरत-ए-परवाज़

हुजूम-ए-फ़िक्र से दिल मिस्ल-ए-मौज लर्ज़ां है
कि शीशा नाज़ुक ओ सहबा है आब-गीन-गुदाज़

‘असद’ से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ वो मअ‘नी है
कि खींचिए पर-ए-ताइर से सूरत-ए-परवाज़