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हरी दूब / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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मेघ के वरदान से सिंचित धरा की मांगलिक मुसकान!
क्रूरता के ग्रीष्म में तुम सरल हृदय समान!
खोल विधवा-आभरण जो चारु-चित्रा मेदिनी के
धूल में खिल उठे, वह तुम व्य´्जना साकार!

हैं तुम्हारे प्राणमय संस्पर्श से ही-
मृत्तिका के आवरण में स्फुरण-निष्पन्दन, पुलक, रोमा´्च!
हे सलौनी! हृदय-हरनी! सुमुखि दूर्बे!
देख कर पथ में तुम्हें बोरी हुई-सी रंग में आमोद के
अटक जाते सहज ही मन कृष्णसार किशोर!

देखकर नूतन तुम्हारा हरिन्मणिप्रभ रूप शोभन
कौन है ऐसा न होगा प्रफुल्लित?
कौन समझेगा न अपने-आपको कृतकृत्य सचमुच?
बैठ कर क्षण-भर तुम्हारे हृदय के अनमोल दामन पर!

हे शुभे! हे विनत-नयने! शोभने!
प्राप्त कर प्रतिपल तुम्हारा नित्य-नूतन स्पर्श
भूल अपनी हीनता जाती भुवन की धूल!
धूल-मिट्टी में लिया है जन्म तुमने,
पर तुम्हारा सरल अन्तःकरण-
मल या धूल क तिमिरावरण से मुक्त है!

यामिनीगन्धा, हिना, मधुमालती मकरन्दमादन
शुक्रतारा-से प्रकाशित पाम्पुर के हेमपिंगलर्ण केसर-पुष्प
दूर-विस्तृत सृष्टि के उद्यान में हैं-
और जितने भी अनोखे विविध रंगों के लता-द्रुम-गुल्म सुन्दर!
शुष्क-जीर्ण विवर्ण हो जाते प्रकृति की ध्वंस-लपटों से झुलस कर
किन्तु, रहती हो सदा तुम खिलखिलाती रंगिणी दूर्वे, पुनर्नव मुग्धता से!

गहन दुर्गम मेघ-रूपी पर्वतों के दुर्ग में से
खोल कर घन, निबिड़ वृष्टि-कपाट!
कितने मद-भरे सावन द्विरद-से ऐंड़ते आते तुम्हें करने प्रकम्पित!
कितने शरत्, कितने शिशिर, कितने ग्रीष्म-
देख चले जाते और आते हुए तुमने!
पर तुम्हारे हृदय का माधुर्य नव उत्फुल्ल यौवन से रहा नूतन बना!
खींच देती है तुम्हारी मोहिनी मुसकान धूसर कर्म-पथ पर
चरण के सन्मुख सरल उल्लास की आलोक-रेखा-सी!

धूल के घन तिमिर से घिर कर न लेने साँस पाती
वसुमती यह रत्नगर्भा मेदिनी!
बिछा देती यदि न अपना हृदय तुम भू के हृदय पर!

पास जो कुछ है तुम्हारे सर्वमंगलमयी दूर्वे!
उसे तुम जाती लुटाती रात-दिन!
शोभने दूर्वे, तुम्हारे ही सरीखे जो भुवन के चरण-तल में-
प्रणत हो कर, और बन कर निखिल उर की वेदना के आत्म-सहचर
मनहरण मुस्कान भरते लोक-मानस के गहन वीरान में!
मनहरण मुस्कान भरते लोक-मानस के गहन वीरान में!
कौन करता कहो उनका विश्व में सम्मान?
उनको कौन करता याद?
उनको कौन गौरव का सुवर्ण-किरीट पहनाता सहज अनुराग से!

धधकती मरुभूमि में विश्राम की मृदु सेज बन कर
मखमली, कालीन से भी हर्षप्रद, प्रिय, रम्य, रुचिकर
सुखद कोमल स्पर्श से हरती रहो हे हरित दूर्वे,
थके-हारे श्रान्त पथिकों के तपन-उत्ताप को!

जैसे ग्रन्थि-व्यूहों, तन्तु-नालों, काण्ड-वृन्तों में चतुर्दिक फूटकर
फैलती प्रियदर्शिनी दूर्वे, सहस्रों रीति से तुम हर्ष से भर!
वैसे ही प्रतिष्ठित और वर्गाकार उत्तरोत्तर हो
दिव्य मानवता मनोरम भूमि के उस हृदय-प्रांगण में-
जो सागरों, अनुल्लंघ्य झरनों, पर्वतों, द्वीपान्तरों को पार कर
क्षितिज के सीमान्त तक मातृत्व की आत्मीयता से व्याप्त है।

(‘नया समाज’,: नवम्बर, 1954 (साहित्यांक)