भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हरे रामा ब्रजवीथिन्ह विच बहुरि (कजली) / आर्त

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हरे रामा ब्रजवीथिन्ह विच बहुरि बाँसुरी बाजे रे हारी ।।

चली बिहाइ कन्त ब्रज बनि तन्हि विकल विरह बौरानी रामा
हरे रामा कृष्ण कालिन्दी कूल कदम्ब तर राजे रे हारी ।।1।।

चुम्बति चरन चहकि चंचलि कोई चिबुक चारु चटकीली रामा
हरे रामा सुघरि सखी सकुचाति श्याम संग साजे रे हारी ।।2।।

अम्बुज अरुण अधर अति सोहत अली चली अति प्यारी रामा
हरे रामा जोहे न जिन्ह जदुवीर ते जनम अकाजे रे हारी ।।3।।

मनमोहन की मिलनि मधुर मुनि मुदित महेश मनावत रामा
हरे रामा युग-युग जियें ब्रजराज को विरद विराजे रे हारी ।।4।।