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हर आदमी की एक मुमताज होती है / महेश सन्तोषी

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किसी की मौत के बाद भी जाने क्यों उससे प्यार न घटता, न मरता,
हर आदमी की एक मुमताज होती है, पर,
हर आदमी ताजमहल गढ़ नहीं सकता,
मकबरे संगमरमर के शायद इसलिए बनते हैं कि जिसे चाहा था,
वह संग-संग क्यों नहीं मरता?

मकबरे ही पीछे बाकी रह जाते हैं, और हम रह जाते हैं उनके सामने फातिए पढ़ते,
जिन्दगी तब हाशियों में चली जाती है, मौत रह जाती है जड़ पत्थरों में जड़ के,
तुम अब जीवित वापिस नहीं आ सकतीं
और
हम हैं कि बिना मौत आये मर नहीं सकते।

मैं तुम्हें याद करने की कोशिश नहीं करता, पर मैं तुम्हें पल भर भूल भी नहीं सकता,
मन बहलाने को मर्सिये गा तो लेते हैं हम, पर,
कोई मर्सिया तुममें जान फूँक नहीं सकता,
मेरे मन में एक ताजमहल है, उसमें तुम हो,
मैं इससे बेहतर कोई ताजमहल गढ़ नहीं सकता।