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हर एक दिल दिल-ए-शाइर में ढल गया होगा / ज़ाहिद अबरोल



हर एक दिल दिल-ए-शाइर<ref>कवी हृदय</ref> में ढल गया होगा
कि जिस तरफ़ भी वो जान-ए-ग़ज़ल<ref>ग़ज़ल की रूह, आत्मा</ref> गया होगा

वो शख़्स करता था दा’वा जो आग पीने का
ख़ुद अपनी आग में मुमकिन<ref>सम्भव</ref> है जल गया होगा

क़ज़ा<ref>मृत्यु</ref> की नज़्र<ref>भेंट</ref> हुआ आज कोई दीवाना
किसी के पांव का कांटा निकल गया होगा

वो गीत ज़द<ref>मार, निशाना</ref> में किसी लफ़्ज़ की जो आ न सका
ज़रूर आंख के अश्कों<ref>आंसुओं</ref> में ढल गया होगा

वो अक़्लमंद है लेकिन बुतों<ref>मूर्तियों</ref> की नगरी में
अजब है क्या अगर अज़ख़ुद <ref>स्वयं</ref> फिसल गया होगा

अब उसके ख़त पे भी अश्कों के दाग़ हैं ‘ज़ाहिद’
वो संगदिल<ref>पत्थर हृदय</ref> भी यक़ीनन<ref>निश्चित रूप से, अवश्यमेव</ref> पिघल गया होगा

शब्दार्थ
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