भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हर गाँव में नगर में ईमान बिक रहा है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
हर गाँव में नगर में ईमान बिक रहा है।
बिल काटता है हाकिम चुकता करे प्रजा है।
डूबी हुई हैं फसलें गेहूँ अलग सड़ा है,
भारत के जन्मदिन पर ‘सिस्टम’ की दक्षिणा है।
हल्की सी धूप में भी गलने लगा जो फ़ौरन,
उसको ही मीडिया क्यूँ सूरज बता रहा है।
हर धार ख़ुद-ब-ख़ुद है नीचे की ओर बहती,
ये कौन पंप दौलत ऊपर को खींचता है।
नेता का पुत्र नेता, मंत्री का पुत्र मंत्री,
गणतंत्र गर यही है तो राजतंत्र क्या है।
झूटे मुहावरों से हमको न अब डराओ,
आँतों को काट देगा पिद्दी का शोरबा है।