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हर गाम पे यह सोच के, मैं हूँ कि नहीं हूँ / निश्तर ख़ानक़ाही

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हर गाम(१) पे यह सोच के, मैं हूँ कि नहीं हूँ
क्या कहर है ,खुद अपनी परछाईं को देखूँ

इस अहद में सानी मेरा मुश्किल से मिलेगा
मैं अपने ही ज़ख्मों का लहू पीके पला हूँ

ऐ!चरखे-चहरूम के मकीं!(२)देख कि मैं भी
तेरी ही तरह सच के सलीबों पे टंगा हूँ

मोहलिक(३)है तेरा दर्द भी क़ातिल है अना(४)भी
हैरान हूँ इल्ज़ाम अगर दूँ तो किसे दूँ

कल तक तो फ़क़त तेरे तकल्लुम(५)पे फ़िदा था
अब अपनी ही आवाज़ कि पहचान में गुम हूँ

शब्दार्थ:
१ -हर क़दम
२ -ईसा मसीह
३- घातक
४ -स्वाभिमान
५- वार्तालाप