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हर गाम पे यास और अलम देख रहा हूँ / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'

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हर गाम पे यास और अलम देख रहा हूँ
ऐ इश्क़ मैं ये तेरे करम देख रहा हूँ

उस क़ल्ब के हर टुकड़े में जो तोड़ा था तुमने
तस्वीर तुम्हारी मैं सनम देख रहा हूँ

ये ख़ाबे-हसीं है कि मेरी दीद का धोखा
इस घर में मैं आज उनके क़दम देख रहा हूँ

ये उलझे हुए हैं मेरे हालात की सूरत
मैं आपकी जुल्फों में जो ख़म देख रहा हूँ

ये क्या कि सितमगर ने करम मुझपे किया है
उस चश्म को अपने लिए नरम देख रहा हूँ

अंजान जो मिट जाने को कहता था वफ़ा पर
उस शोख़ की मैं झूठी क़सम देख रहा हूँ।