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हर गुनाह-ए-शोख़-ओ-सरकश दुश्ना-ए-ख़ूँरेज़ है / वली दक्कनी
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हर गुनाह-ए-शोख़-ओ-सरकश दुश्ना-ए-ख़ूँरेज़ है
तेग़ इस अबरू की हरदम मारने कूँ तेज़ है
इश्क़ के दावे में इसकी बात रखती है असास
सुंबल-ए-ज़ुल्फ़-ए-परी सूँ जिसकूँ दस्त आवेज़ है
आज गुलगुश्त-ए-चमन का वक़्त है ऐ नौ बहार
बादा-ए-गुल रंग सूँ हर जाम-ए-गुल लबरेज़ है
जब सूँ तेरी ज़ुल्फ़ का साया पड़ा गुलशन मिनीं
तब सिती सहन-ए-चमन हर बार सुंबल ख़ेज़ है
सादा रूयाँ कूँ किया मुश्ताक़ अपने हुस्न का
शे'र तेरा ऐ 'वली' अज़ बस कि शौक़ अंगेज़ है