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हर डगर पुर-ख़ार है हर राह ना-हमवार सी / राजेंद्र नाथ 'रहबर'

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 हर डगर पुर-ख़ार है हर राह ना-हमवार सी
ज़िंदगी है ज़िंदगी के नाम से बेज़ार सी

ज़हर ये घोला है किस ने कुछ पता चलता नहीं
खिंच गई है दो दिलों के दरमियां दीवार सी

ज़िंदगी अब तेरे लब से वो भी ग़ाइब हो गई
रक्स़ करती थी जो कल तक इक हंसी बीमार सी

बोल पड़ने को है गोया जिस्म का हर एक अंग
ख़ामुशी भी है किसी की माइले-गुफ्त़ार सी

मुस्कुराहट, चाल, तेवर, गुफ्त़गू, तऱ्जे-ख़िराम
हर अदा उतरे है दिल में 'मीर` के अशआर सी

क़त्ल होते हैं फ़रिश्ते रोज़ राहों में यहां
ज़िंदगी सी क़ीमती शय को कहो बेकार सी

जब किया तस्लीम ऐ 'रहबर` ज़माने ने हमें
जब कही हम ने ग़ज़ल उन के लब-ओ-रुख्स़ार सी